एक दिन विजय श्री ने पूछा - ' मै कहाँ जाऊँ ? सत्य युग की सृष्टिगत द्वंदात्मकता में वेदमंत्रों से ही मै आहूत कर दी जाती थी | उस समय संघर्ष का क्षेत्र शारीरिक व मानसिक न होकर आध्यात्मिक था | सतोभाव की आश्रय निष्ठा ही इतनी सबल थी कि सम्पूर्ण दृश्यगत बाह्य अंतर की सत्ता से ही नियंत्रित करता रहा था | मै तो उस समय लोगों के अन्तःकरण की एक दासी मात्र ही बनकर रह गयी थी ,फिर भी मेरी कामना में लोग हजारों वर्ष की कठिन तपस्याएँ किया करते थे | जन-जन का मानस और सृष्टि का कण -कण यज्ञ-मंत्रों व सुगन्धित से गुंजित व पुलकित रहता था | मेरी साधना के लिए तप: पूत ऋषि मुनियों के ही नहीं , सामान्य गृहस्थो के प्रयत्नों से भी मै गदगद थी | मै प्रभु से प्रार्थना करती रहती थी कि सत्य युग कभी बीते ही नहीं किन्तु जिस प्रकार मेरे साधकों की परीक्षा के लिए मै कठिनाईयों और कष्टों में प्रत्येक साधक को तपाती हूँ उसी प्रकार मुझे भी जगन्नियन्ता की परीक्षा में समय समय पर उतीर्ण होना पड़ता है |
सत्य युग न रुक सका और त्रेता का आगमन हुआ | परन्तु इस युग में भी मेरी अर्चना होती रही | यद्दपि उस युग में भी जनक जैसे साधक हो गए जिन्होंने मेरी सर्वथा उपेक्षा की किन्तु उसी युग में दूसरी और भगवान ने राम के रूप में अवतार ग्रहण कर मेरी प्रसन्नता के लिए बन्दर व भालुओं की सेना खड़ी कर दी | उनकी लोक संग्रह की प्रवृति ने लोगों को मेरी और इतना झुकाया कि विजयादशमी आर्य जाति का सांस्कृतिक त्यौहार हो गया | इस दिन अनेक साधक मुझे प्रसन्न करने के लिए अनेक प्रकार के प्रयोग करने लगे | मुझे त्रेता से भी कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि तब तक भगवान् की अवतार परम्परा ने मेरी आराधना का सक्रिय विरोध नहीं किया |
परन्तु द्वापर के आते ही मेरे विरूद्व व्यापक कार्य हो गया , स्वयं भगवान् ने मेरा मुक्त कंठ से खंडन किया | मेरे विरूद्व निष्काम कर्म योग की षड्यंत्रकारी विचारधारा फैलाई गयी और गीता ने मेरा मूलोच्छेदन करने का भगीरथ प्रयत्न किया | मै सुख वैभव यश और आनन्द का उपहार मानव समुदाय को दे आई फिर भी मै उपेक्षा की दृष्टि से देखी जाने लगी | थोडी संख्या होते हुए भी संगठन ,योजना ,कार्यप्रणाली ,राजनीती ,पुरुषार्थ ,प्रयत्न आदि की और से दृष्टि हटाकर देश के रक्षक बिना परिणाम की चिंता किये वीरतापूर्वक कट कर मरने लगे | वैदिक सकाम कर्म लुप्त होने लगा | एक अध्यात्मिक आन्दोलन ने मेरी रीढ़ की हड्डी ही तोड़ दी |
मैंने प्रतीक्षा की कि शायद कलियुग में मेरा कोई आश्रय दाता मिल सके ,परन्तु खेद है कि कोई दिखाई नहीं ही नहीं देता | मै यश ,वैभव, सुखादि सेवकों को साथ लिए फिरती हूँ ,फिर पुरुषार्थ कापुरुष का तो वरण ही कैसे कर सकती हूँ ? जिन अश्वमेघ और राजसुयादि यज्ञों पर मंत्रमुग्ध हो मेरे कदम बढा करते थे ,वे यज्ञ तो अब केवल अध्ययन और स्मृति की बात बनकर रह गए है | अब मै कहाँ जाऊ ? कौन मुझे अनाथ को सनाथ कर सकता है ? क्या संसार में पुरुषार्थ का नामोनिशान ही उठ जायेगा ? क्या महत्वाकांक्षाएँ इस संसार से सदा के लिए विदा ले लेंगी ? मै अब भी किसी योग्य वर की प्रतीक्षा में हूँ | क्या मेरी पुकार कोई भी वीर नहीं सुन रहा है ?
एक वीर सीना फुलाकर आगे बढा - ' मै तुम्हारी पुकार का उत्तर देता हूँ ,मेरे पास आओ |'
और मै विजय दुल्हन-सी ठुमकती हुई उसके समीप जा बैठी | पाणिग्रहण हुआ, मांगलिक गीत गाये गए | दुल्हन की प्रत्येक इच्छा को पूरा किया गया | उसके प्रत्येक कटाक्ष के साथ तलवारें चमकने लगी | सैकडों और हजारों टुकडों में बंटा हुआ भारत उसकी चलाई हुई तलवारों की छांह में एक होकर विश्राम करने लगा | जिस स्थान पर उसने कदम रखा पतिव्रता की भांति विजय ने उसके प्रत्येक चरण को अपनी सदाबहार मुस्कराहट से चूम लिया | यह भारतभूमि सम्पूर्ण रूप से उस विजय की सौत बन गई | भारत का इतिहास विजय से ईर्ष्या करने लगा और उसने अपने पन्नो पर ऐसे किसी सम्राट की कहानी को फिर कभी चढ़ने ही नहीं दिया |
वह सम्राट समुद्रगुप्त भी एक क्षत्रिय था |
चित्रपट चल रहा था दृश्य बदलते जा रहे थे |
धरती का सुहाग ;;
विजय का स्वयंवर
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Comments :
Post a Comment