बदलते द्रश्य

द्रश्य पट पर कई चित्र आये , उभरे और बदलते गए | में तो इतना तल्लीन हो गया कि याद ही नहीं रहा कौन कब आया और क्या कर चला गया | इन द्रश्यों के बीच मैंने और भी कई द्रश्य देखे थे | कभी महाराणा कुम्भा की विजय यात्राएं देख रहा था ,गुजरात और मालवा को अलग अलग और फिर सम्मिलित रूप से हारता देखा | कभी गौ वध को बंद करने के लिए नागौर पर होने वाली चढाई देखता रहा ; फिर आग में मस्जिदों को जलते और तलवारों से मुसलमानों को कटते देखा | कभी पृथ्वीराज को जालौर और टोडा तक युधों के लिए उड़ने की गति से आक्रमण करते देख रहा था | जौहर की ज्वालाओं को देखा , केसरियां बानों को देखा , कसुमा पीते और गले लगते देखा , कभी महाराणा प्रताप को देखता रहा घास की रोटियां खाते , चेतक पर चढ़े वीरता के अलबेले सिपाही को पहाडो की घाटियों और उपत्यकाओं में इतिहास की अनमोल पक्तियों को लिखते देखा | हल्दी घाटी में उसके भालों को शत्रुओं में घुसते और निकलते देखा | कभी उटाला पर अमर सिंह की सेना की विजय यात्रा में शक्तावातो और चुंडावतों के हाथ देख रहा था | बंद किले पर हाथी के हिचकने पर बल्लू शक्तावत को दरवाजे से चिपट कर हाथी से टक्कर दिलाने के ठाठ देखता रहा | रूपनगर की राजकुमारी के लिए मुंह धोने वाले औरंगजेब की आँख के कांटे महाराणा राज सिंह को देखा | हाँ भूल ही गया , मैंने कर्मवती को भी देखा , मीरा और पद्मिनी को भी देखा था | रावत बाघ सिंह को भी देखा और पन्ना धाय को भी देखा और मेरे मुंह से बरबस निकल पड़ा -धन्य मेवाड़ ! धन्य !!;
क्रमश:

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Comments :

1
Raghunath Singh Ranawat said...
on 

बहुत ही सुन्दर

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