चित्रपट चल रहा था द्रश्य बदल रहे थे उन्ही द्रश्यों में मैंने देखा
पहाडियों से घिरे आम्बेर दुर्ग को देखा | उस दुर्ग के प्रतापी और यशस्वी सिपहसालारों को देखा जिन्होंने समुद्र में खांडा धोया और काबुल तक हदबंदी की | मैंने मिर्जा राजा जय सिंह को देखा जिसने शिवाजी जैसे प्रबल योद्धा को भी बस में कर लिया | जिसकी तलवार की लोहे का दबदबा आगरे से सुदूर दक्षिण तक फैला हुआ था | जिसके आगे बीजापुर और गोलकुंडा ने सर झुका दिया | मैंने जयपुर जैसे शहर को बसाने वाले राजा सवाई जय सिंह को देखा | उनकी कला,विद्वता, और सुशासन को देखा | समस्त राजस्थान को एक सूत्र में लाने की उसकी राजनीतीज्ञता देखि | उनको दिल्ली के सम्राट से लोहा लेते देखा और बादशाह को अपनी कब्र खोदने के लिए मजबूर होते देखा |मैंने उणियारा के राव राजा को देखा जिसने हारी हुई संभार की लड़ाई को केवल ५०० कुत्तों से जीत लिया | वह द्रश्य देखकर तो मैंने दस बार ताली बजा डाली |मैंने टोडा को भी देखा | सुरताण हरराजोत की कन्या तारादेवी को घोडे पर चढ़े,गए हुए राज्य को तलवार के बल वापिस लेते देखा | राव जग्गनाथ सिंह और कल्याण सिंह को शाका करते देखा | लावा की तलवारें देखि , अलवर की हुंकारें देखि और मै कह उठा -धन्य आम्बेर ! धन्य !! ;
धन्य आम्बेर ! धन्य !!
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