फिर से शमाएं जल उठी रे शीशदान की
झुकने लगी ऊँचाइयाँ रे आसमान की
तूफां से लड़खड़ा गया जीवन का दीप है
तरकश के चुक गए है तीर संध्या समीप है
डोरी न टूट जाए रे खींचो कमान की ||
फिर से शमाएं जल उठी रे शीशदान की
झुक झुक के हमने चूम ली कदमो की धूल को
फूलों की खोज में नहीं छोड़ा बबूल को
जिन्दा दिली हैरान है, सारे जहान से ||
फिर से शमाएं जल उठी रे शीशदान की
सीने में सिमट के पड़ी दूरी दिगंत की
आँखों में खा रही उबाल व्यथा अनंत की
जरुरत है आज कौम को ऐसे जवान की ||
फिर से शमाएं जल उठी रे शीशदान की
वर्षों की खोज थक गयी मांझी कहाँ गए
नावें कहाँ उलट गयी मोती कहाँ गए
सत्ता न लुभा सकी जिन्हें , अकबर महान की ||
फिर से शमाएं जल उठी रे शीशदान की
झकझोरना अच्छा नहीं ,बिसराई याद को
मंजिल पे पाओगे मगर मेरी समाधि को
बाजी रखेंगे देखना अपनी जबान की ||
फिर से शमाएं जल उठी रे शीशदान की
स्व. श्री तन सिंह जी : १७ फरवरी १९६३
फिर से शमाएं जल उठी
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