बदलते द्रश्य -3

चित्रपट चल रहा था द्रश्य बदल रहे थे इन्ही द्रश्यों में मैंने देखा
मैंने भारत की उत्तर दिशा के किवाडो को देखा जो पहली बार गजनी के किले में लगाये गए थे | फिर स्यालकोट और भटनेर में लगाये गए | फिर कहेरोर और तन्नोट गढ़ में लगाये गए | फिर देरावर और भटिंडा में लगाये गए | फिर लुद्र्वा और अंत में जैसलमेर में लगाये गए | मैंने उन किवाडों को देखा , उनके तालो को देखा ,अर्गला और शुलों को देखा | पराक्रमी विजयराज चुन्डला को देखा ,साहसी देवराज को देखा ,भोज और जैसल को देखा | मूलराज और रतनसि के चरण कदमो को बालू रेत पर उभरते देखा | जैसलमेर के किले में मूलराज और रतनसी को केसरिया बाना पहने देखा ,जौहर की ज्वालाओं को देखा | ज्योहीं वे बुझने लगी दुदा और तिलोकसी ने फिर प्रज्वलित की | तीसरी बार लुन्करण ने उसी अग्नि को अन्तः करण में समेट कर तीसरा शाका किया | बारह बारह वर्षों तक चलने वाले संसार के अद्वितीय घेरों को देखा | यमराज से युद्ध करने लिए चाचकदेव रणयात्रा देखि | मैंने महारावल घड़सी को देखा | किले को उजड़ते आबाद होते देखा |सुखी भूमि में नर नाहरों को पुरुषार्थ के पानी को लहराते देखा | मैंने सतियों को देखा , मानिनी उमादे भटियानी को देखा जिसने जीवन पर्यन्त पतिमुख न देख कर अंत में पतिवर्त धर्म के लिए पति के शव के साथ अग्नि प्रवेश किया | मैंने महारावल अमर सिंह को रोहीडी के पास लोमहर्षक युद्ध करते देखा और उसी गांव के पास सतियों की पहाड़ी देखी जिस पर अब भी बुझी हुई ज्वाला धधक रही है और मेरे मुंह से बरबस निकल पड़ा - वाह जैसलमेर ! वाह !!

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Comments :

1
दिनेशराय द्विवेदी said...
on 

सुन्दर अवलोकन इतिहास का।

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