चित्रपट चल रहा था द्रश्य बदल रहे थे उन्ही द्रश्यों में मैंने देखा
मैंने मोकल के पुत्र राव शेखा को देखा जिसके बल विक्रम से नए राज्य की नीव लग रही थी | साथ ही मैंने बीस सवारों के साथ रायसल दरबारी को देखा जिसने अकथनीय पराक्रम से शत्रु सेनापति का सर काट डाला और मंत्री देवीदास के इस कथन की सिद्दि प्राप्त की कि " पिता की सम्पति पर अधिकार करने की अपेक्षा अपने ही बल पराक्रम से सौभाग्य का उपार्जन मनुष्य का कर्तव्य है -यही जगदीश्वर का अनुग्रह है " उसी जगदीश्वर का अनुग्रह मैंने रायसल के पुत्र द्वारकादास पर देखा जिसके सिंह से युद्ध के लिए उद्दत होने पर लड़ने की अपेक्षा वही शेर उनके तलवे चाटने लगा | मैंने भोजराज के वंशज नव-विवाहित सुजान सिंह को खंडेला के मंदिर की रक्षा करते देखा | उसे पुरे यौवन के अधूरे अरमानो के साथ अकेले ही सैकडो यवनों को मसलते देखा | धरा धर्म की मांग पर प्राणोत्सर्ग के कर्तव्य का इतिहास में अमूल्य प्रष्ठ जुड़ते देखा | वे माताएं होगी जिन्होंने इस प्रकार के नव-रत्नों को जन्म दिया है | मैंने केसरी सिंह को देखा जिसने सैयद अब्दुल्ला द्वारा भेजी गई शाही सेना का मुकाबला करने के लिए समस्त शेखावाटी को एक सूत्र में बांध दिया और जब वह सूत्र टूटने लगा तो युद्ध से भागने की सलाह को अस्वीकार करते कहा था कि ऐसा कलंक मै अपने ऊपर कभी नहीं लगाना चाहता जिसे मेरी आने वाली पीढियां भी नहीं धो सकती | उसी केसरी सिंह को अंत में मेदिनी माता को अपने ही रक्त मांस व मिटटी से पिंडदान करते देखा | मैंने अनेक बार खंडेला को उठते गिरते लडखडाते और लड़ते देखा | शार्दुल सिंह शेखावत जैसे जीवट के खिलाडियों को देखा,खेल के मैदानों को देखा,खेलों को देखा और छोटी-छोटी बातों में जीवन की महानताओं को गोते लगाते देखा और मेरे मुंह से बरबस निकल पड़ा वाह शेखावाटी ! वाह !! ;;
वाह शेखावाटी ! वाह !!
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