वैरागी चित्तोड़ -2

विस्मृति बता रही है- यह तो रानी पद्मावती का महल है | इतिहास की बालू रेत पर किसी के पदचिन्ह उभरते हुए दिखाई दे रहे है | समय की झीनी खेह के पीछे दूर से कही आत्म-बलिदान का,उत्सर्ग की महान परम्परा का कोई कारवां आ रहा है | उस कारवां के आगे चंडी नाच रही है | तलवारों की खनखनाहट और वीरों की हुंकारे ताल दे रही है | विकराल रोद्र रूप धारण कर भी वह कितनी सुंदर है | कैसी अद्वितीय रणचंडी है | पुरातन सत्य बढ़ा आ रहा है | कितना मंगलमय है | कितना सुंदर है | कितना भव्य है |
हाँ ! यह रानी पद्मावती के महल है-चारों और जल से घिरे हुए पत्थरों ने रो-रो कर आंसुओ के सरोवर में गाथाओ को घेर लिया है |
दुःख दर्द और वेदना पिघल-पिघल कर पानी हो गई थी अब सुख-सुख कर फ़िर पत्थर हो रही है | जल के बिच खड़े हुए यह महल ऐसे लग रहें है,जैसे वियोगी मुमुक्ष बनकर जल समाधी के लिए तत्पर हो रहे रहे हों,अथवा सृष्टि के दर्पण में अपने सोंदर्य के पानी को मिला कर योगाभ्यास कर रहें हों |
यह रानी पद्मिनी के महल है | अतिथि-सत्कार की परम्परा को निभाने की साकार कीमतें ब्याज का तकाजा कर रही है; जिसके वर्णन से काव्य आदि काल से सरस होता रहा है,जिसके सोंदर्य के आगे देवलोक की सात्विकता बेहोश हो जाया करती थी;जिसकी खुशबू चुराकर फूल आज भी संसार में प्रसन्ता की सौरभ बरसाते है उसे भी कर्तव्य पालन की कीमत चुकानी पड़ी ? सब राख़ का ढेर हो गई केवल खुशबु भटक रही है-पारखियों की टोह में | क्षत्रिय होने का इतना दंड शायद ही किसी ने चुकाया हो | भोग और विलास जब सोंदर्य के परिधानों को पहन कर,मंगल कलशों को आम्र-पल्लवों से सुशोभित कर रानी पद्मिनी के महलों में आए थे,तब सती ने उन्हें लात मारकर जौहर व्रत का अनुष्ठान किया था | अपने छोटे भाई बादल को रण के लिए विदा देते हुए रानी ने पूछा था,- " मेरे छोटे सेनापति ! क्या तुम जा रहे हो ?" तब सोंदर्य के वे गर्वीले परिधान चिथड़े बनकर अपनी ही लज्जा छिपाने लगे; मंगल कलशों के आम्र पल्लव सूखी पत्तियां बन कर अपने ही विचारों की आंधी में उड़ गए;भोग और विलास लात खाकर धुल चाटने लगे | एक और उनकी दर्दभरी कराह थी और दूसरी और धू-धू करती जौहर यज्ञ की लपटों से सोलह हजार वीरांगनाओं के शरीर की समाधियाँ जल रही थी |
कर्तव्य की नित्यता धूम्र बनकर वातावरण को पवित्र और पुलकित कर रही थी और संसार की अनित्यता जल-जल कर राख़ का ढेर हो रही थी |
शत्रु-सेना प्रश्न करती है -
" यह धुआं कैसा उठ रहा है ?"
दुर्ग ने उत्तर दिया -" मूर्खो ! बल के मद से इतरा कर जिस भौतिक वैभव के लिए तुम्हारी कामनाएं है,वाही धूम्र-मय यह संसार है,जो अनित्य है | पीड़ित मिट गए पर सबल से सबल आततायी भी शेष रह पायें है ? जिनके सुख,स्वतंत्रता और स्वाधीनता के साथ आज तुम खिलवाड़ करना चाहते हो,अमरलोक में इन्ही के खेल तुम्हारी बर्बरता पर व्यंग्य से मुस्करायेंगे |"
इतने में ही केसरिया बाना पहने,दुर्ग से ढलते वीरों को भ्रमपूर्ण द्रष्टि देखकर शत्रु सेना फ़िर दुर्ग से पूछती है,- " और यह अंगारे कैसे है ?"
दुर्ग उत्तर देता है- 'मूर्खो ! यह कर्तव्य की आग है,जो नित्य जला करती है,और इसी में जला करती है जुल्मों की कहानियाँ; इसी में आततायियों के इतिहास जला करते है और इसी में जलते है - स्वातन्त्र्य प्रेमी प्रणवीरों के प्राण !"
घमासान युद्ध ! लाशों के ढेर ! खून के कल-कल करते हुए नाले !धरती की लाज छिपाने के लिए क्षत्रियों ने उस पर मानव-वस्त्र डाल दिया | उनकी पराजय शत्रु-सेना की विजय पर व्यंग्य से मुस्कराने लगी | वर्षों का वैमनस्य का निर्णय दो ही घंटों में हो गया |
शत्रु दुर्ग में घुसे | निर्जनता उनके स्वागत के लिए खड़ी थी,क्योंकि वह जीवित और शेष थी | सोंदर्य जलकर राख हो चुका था | राज्य सत्ता आहत हुयी कराह रही थी; अपनी अन्तिम घड़ी की प्रतीक्षा में अधीर हो रही थी |
अल्लाउदीन का प्रस्तर हृदय भी रो उठा | राख को अपने मस्तक के लगाया | दुर्ग को पूछा-"यह भीषण नर-संहार,यह विकराल रक्त-पात और यह यज्ञानल में सर्वस्व-अर्पण केवल तेरी रक्षा के लिए हुआ और तू पाषण-हृदयी,कितना जड़ और ढीठ है,जो मूक खड़ा है किंतु पिघल नही जाता !"
दुर्ग ने शांत भाव से उत्तर दिया-" मेरी रक्षा ही इनका लक्ष्य होता तो ये मुझे अरक्षित छोड़कर अभी न मरते,न जलते | इनकी एक आन है,एक स्वाभिमानी परम्परा है और उसकी रक्षा मर मिटकर ही की जा सकती है | मै तुम्हारे अधीन हो गया,पर वे लक्ष्य-भ्रष्ट नही हुए | अलाउद्दीन ! तुम इन भावनाओं को नही समझ सकते,इन्हें मै जानता हूँ क्योंकि,मेरी छाती पर सदैव ऐसे ही खेल खेले गए है | मै इन अद्वितीय खिलाड़ियों के अचिन्त्य खेलों का सदैव साक्षी रहा रहा हूँ,तुमसे पहले और तुम्हारे बाद कई मुझ पर चढ़ कर आए है और आयेंगे,पर जब तक मरने की यह परम्परा चलती रहेगी,तब तक मै अधीन होकर भी गौरव को स्वाधीनता का पाठ पढाते हुए इनकी अनोखी कहानियाँ सुनाता रहूँगा |इसलिय,मै व्यथा और शोक में पिघलता नही,बल्कि यहाँ के वातावरण और प्रत्येक निवासी को यही शिक्षा देता हूँ कि क्षुद्र देहाध्यास से ऊपर उठकर कर्तव्य को पहचानों |"
अलाउद्दीन ने अपनी फौज को कूच करने का हुक्म देते हुए कहा,-" यहाँ के तो पत्थर भी मनुष्य है और मनुष्य पत्थर है; यह दुर्ग वैरागी है,वियोगी नही |"
"वीतराग वैरागी चित्तोड़ ! तेरे पावन चरणों में मेरा तुच्छ शीश अनुराग से नत है | श्रधा से शत-शत नमन ! तेरा उन्नत मस्तक आज तक किसी के समक्ष नही झुका और इसलिए तुमने हमारा मस्तक सदा के लिए ऊँचा कर दिया | आज वही न झुकने वाला मै,तेरे ही सामने कृतज्ञता से नत मस्तक हूँ; प्रणाम ! शत-शत प्रणाम ! क्या हमें भी कोई शिक्षा दे सकते हो ? तुम पत्थर होकर भी जाग रहे हो और हम इन्सान होकर भी सो रहे है |"
तुम्हें क्या शिक्षा दी जावे, पथिक ! तुम्हारे पूर्वजों के खून ने तुम्हे कोई शिक्षा ही नही दी,तुम्हारी माताओ और बहिनों के बलिदान तुम्हें कुछ नही सिखाया,तुम्हारे जाज्वल्यमान इतिहास से भी तुम कुछ नही सीख सके तो मै क्या शिक्षा दे सकता हूँ, जो उस जीवित इतिहास का एक जड़ और मूक स्मारक हूँ ; पर हाँ मेरी भी मर्यादाएं है | जिनका मस्तक झुक गया,उन्हें जाकर कहना -मेरे सामने आकर अपना मस्तक न झुकाए | जिन्होंने एक जीवित जाति और जीवित इतिहास का स्मारक बना दिया है,उन्हें कह देना-कि मै उन्हें देखना भी नही चाहता | वे कदम कभी इधर न आए,जो हार कर शत्रु के टुकडों पर जीवित रहने के लिए चल पड़े हों |"
वैरागी चित्तोड़ ! विदा ! मै उस समाज के जीवित अंश की खोज में जा रहा हूँ, जो कर्तव्य के मार्ग में परिणामो की चिंता नही करता |उस संजीवनी की खोज में जा रहा हूँ,जिसका आस्वादन कर यह समाज समय-समय पर इतिहास बन सका है | वह त्याग कहाँ है,जिसकी पावन चेतन धारा आज जड़ और मूक बन गई है | वह आकाश कौनसा है,जिसमे मेरे बलिदान का प्रखर सूर्य अस्त हो गया है | मै ढूंढ़ निकालूँगा उन्हें | तेरी प्रेरणा का मुझ पर नशा छा गया है,जिसे जीवन का नशा कहा जाता है,इसी नशे में एक दिन धुत होकर आवूंगा और तुझे बताऊंगा,कि मेरे पूर्वजों के खून ने मुझे क्या शिक्षा दी थी | सिद्ध कर दूंगा,कि मेरे जाज्वल्यमान इतिहास में अब भी शोले दहक रहे है और यह भी सिद्ध कर दूंगा , कि तुम मेरे इतिहास के जड़ और मूक स्मारक नही, एक प्रेरणा के पुंजीभूत हो |
स्व.श्री तन सिंह जी,बाड़मेर





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