क्षिप्रा के तीर -6

भाग-1, 2, 3, 4, 5, का अंतिम
यदि कभी क्षत्रिय जाति का कोई देशभक्त संगठन हो, तो वहां कहना - ' इस संगठन के दुर्गादास जीवन भर तरसता रहा पर सफल नहीं हुआ और आप लोगों के लिए अप्रत्याशित सफलता पर उसने हार्दिक बधाईयाँ भेजी है |' यदि कौम के बन्दे कभी जंगल जंगल छाने , तो मुझे भी सूचना भेजना - ' मेरे बंधू , दुर्गादास , लौट के आ रे , लौट के आ ' | मैं उन कौम के कुशल कारीगरों के साथ सहयोगी और सामूहिक जीवन व्यतीत करना चाहता हूँ | एक बार फिर जंगल-जंगल भटकना चाहता हूँ , घर घर दीप जलना चाहता हूँ , गांव गांव और नगर-नगर में जाकर इस सत्य को कहना चाहता हूँ , कि यह कौम कभी मिटने न पायेगी और ठोकर लगने पर हर बार उठती जाएगी |
पथिक ! तुम रो रहे हो | आंसू मत बहाओ | तुम्हारी आँखों में तो दृढ प्रतिज्ञा के लाल डोरे दिखाई दे रहे थे | मैंने तो तुम्हे बदला लेने की आग में झुलसते देखा है और इसीलिए आज दौ सौ वर्ष बाद मैं अपनी समाधि से पहली बार जागकर कुछ कह पाया हूँ | हिम्मत रखो , बहो मत | तुम्हारे जैसे व्यक्ति से हिम्मत की उम्मीद करता हूँ |
बाबा ! दया करो ! मुझे लज्जित न करो - दया करो , प्रशंसा लज्जित हो रही है | उसे उपयुक्त पात्र चाहिए | मैं तुमसे प्रेरणा की भीख मांगने आया हूँ | मुझे भिक्षा दो | मेरी आँखों में दृढ प्रतिज्ञा कहाँ है ? वे आँखें तो फूट चुकी है | अब तो मैं अन्धा हो चूका हूँ और बदला भी मुझसे ही लिया जा रहा है | यह बदले की आग नहीं , जिसमे मैं जला जा रहा हूँ , यह तो मेरी संघर्ष हीनता जल रही है , तुम्हारे नेत्रों की रोषाग्नि से | मैं तुमसे प्रेरणा की भीख मांगने आया हूँ , मुझे भिक्षा दो |
मुझे भिक्षा दो , संतान -परम्परा की , उस कर्तव्य बुद्धि की जिससे मैं माँ दूध की लाज रख सकूँ | मुझमे धरती के प्रति रागात्मक सम्बन्ध का वह मोह उत्पन्न करो , जिसे मैं धरती के सुहाग की लाज रख सकूँ | मुझे उस अन्न की भिक्षा दो , जिससे मैं अन्न की लाज रख सकूँ | कर्तव्य पालन के मार्ग में अपने विश्वासों के लिए जीने की वह निर्ममता सिखा दो, जो स्वयं जलकर और को प्रकाश दे जिससे मैं नमक की लाज रख सकूँ | छलनाएँ और लालच मुझे मेरे मार्ग से विचलित करने का प्रयास करते है , इसलिए मुझे दे सको तो उस चरित्र की भिक्षा दो , जो तपस्वियों के तप की लाज रख सके | मुझे भक्ति दो| तुम्हारी स्वामिभक्ति मेरे भीतर सोये हुए भगवान् को जगाएगी |
टूट जावूँ पर झुकूं नहीं | हार जावूँ पर आँख में आंसू न बहाऊं | गिर जाऊं पर अपमान का बदला लेने के लिए बार-बार उठता जाऊं | मुझे उस स्वाभिमान कि भिक्षा दो , जिससे मैं समाज के लिए गौरवपूर्ण मर सकूँ |
महान दुर्गादास ! क्या तुम दानवीर भी हो ?
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उसका घोडा मुडा |
मेरे समीप आ गया |
अभय मुद्रा में उसका हाथ उठा |
सदियों के बाद उसके होठों के बाँध से मुस्कराहट फूट निकली | मेरे जैसे निष्क्रिय , संघर्षविहीन और गौरवविहीन संतान को देखकर भी उसे शर्म अनुभव नहीं हुई | उसने मुझे इच्छित वस्तु दी |
उसने दानवीरों के दान की लाज रखी |
मैं धन्य हो गया | मेरा मस्तक श्रद्धा से उसके पावन चरणों में झुक गया | आँखों से भागीरथी की पावन धारा बहती रही | बहुत देर तक एक बार फिर उस महापुरुष को देखने के लिए आँखे उठी |
न घोडा था |
न घुड़सवार |
न जाने किस प्रकार दुनियां में वह खो गया , और मैं जैसे आया था वैसे अकेला रह गया |
सामने दिखाई दे रही - छत्री
महान वीर दुर्गादास का चिर उपेक्षित -स्मारक
जिसके चरणों में मन्दाक्रान्ता छंद की भांति बह रही थी - क्षिप्रा
चरण प्रक्षालन करती हुई सी |
समाप्त



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Comments :

3 comments to “क्षिप्रा के तीर -6”
Udan Tashtari said...
on 

बढ़िया रहा.


हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

अनेक शुभकामनाएँ.

ताऊ रामपुरिया said...
on 

बहुत ही ओजस्वी.

रामराम.

somendra said...
on 

क्या लिखा है आपने, निःशब्द कर दिया. बिना लिखे यहाँ से जा नहीं सकता. और दूसरी तरफ लेखनी खुद मूक हो कर पूछती है.......क्या लिखूं? मात्र लिखने से पूर्वजों के ऋण से मुक्ति मिलती तो कितना अच्छा होता. मैं क्षत्रिय नहीं. मुझमें रण में दिखाने योग्य वीरता भी नहीं, परन्तु पता है कि क्या करने से इस ऋण से मुक्ति मिलेगी. आपको आभार ज्ञापित करता हूँ और कहना चाहता हूँ कि आपके लेख मेरे संकल्प को और दृढ बनाते हैं.

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