चेतक की समाधि से -6

भाग-१, भाग-२, भाग-३, भाग-४, भाग-५ से आगे ...........
" आगे क्या बात हुई , मैं तो सुन ही नहीं सका और लड़खड़ा कर गिर पड़ा | जब होश में जागृत हुआ तो दोनों मुझ पर झुके हुए थे | महाराणा की एक कातर पंक्ति मुझे अभी तक याद है - " विधाता ! तुमने मुझसे क्या नहीं छीना ? राज्य, सुख , वैभव , महल और विजय तक छीन ली और अब मेरे एक मात्र साथी चेतक को छीन रहे हो | तुम इतन्र निष्ठुर हो , इसकी मुझे कल्पना भी नहीं थी | काश ! मुझे चेतक एक बार उधार ही दे देते ! मैं उसी के सहारे तुम्हारी छिनी हुई विजय ले लेता और विजय के साथ सभी अभावों की पूर्ति हो जाती |"
' पर इतिहास में काल ने किस महापुरुष की पुकार को सुना है | भाग्य ने किस वीर की महत्वाकांक्षाओ का अंत तक साथ दिया है ? दुर्भाग्य की विवशता पर कर्मवीरों के कितने प्रयास निष्फल हो गए है | संसार की इस निर्दय बेबसी के कारण ही संघर्ष प्रिय व्यक्तियों के पुरुषार्थ का गगनभेदी डंका अबाध गति से नहीं बज सका | उसी बेबसी में महाराणा प्रताप और शक्ति सिंह के आंसू बह-बह कर सूख गए | हम तीनों के आंसूओं की त्रिवेणी इसी स्थान पर बहकर सदा के लिए सूख गयी | '
" मेरी विदा की बेला उपस्थित हुई और मैंने प्रणाम किया | वीरों की वसुंधरा ! तुझे नमस्कार है | परवानों की शमा हल्दीघाटी ! तुझे भी नमस्कार है | मेवाड़ के दुखी महाराणा ! तुम्हे भी नमस्कार है | अंतिम नमस्कार ! तडफड़ा कर शरीर ने मुझे बाहर धकेल दिया और मैं बिना -पंख के उड़ा जा रहा था | मुड़कर देखता भी जा रहा था | महाराणा ! मेवाड़ के महाराणा एक अकिंचन घोड़े के मृत शरीर पर आंसू बहा रहे थे हम पीढ़ियों तक इस कौम के साथ मरते आ रहे है | मैंने भी कोई बड़ा काम नहीं किया , पर एक खटका रहा | स्वामी के लिए अंतिम घडी तक उनके साथ नहीं रहा | बीच राह ही मैंने विदा ले ली और इसलिए वर्षों से यहीं , इसी स्मारक की छाया में पड़ा हुआ महाराणा की प्रतीक्षा कर रहा हूँ , इस संकल्प के साथ कि इस बार उनका अंत तक साथ दूंगा |"
" तुम यहाँ देखने आये हो , पर पथिक ! तुम्हे क्या दिखाऊ ? यहाँ दो बिछुड़े हुओं का मिलन हुआ और दो मिलें हुओं की जुदाई है | मिलने वाले जुदा भी हो गए और जुदाई वाले कभी न मिल सके | इसीलिए युगों से प्रतीक्षा की आग में जला आ रहा हूँ | अब तो आँखों में वह पानी ही नहीं रहा , कि जिससे यह आग बुझाई जा सके | तुम भी दो बूंद आंसू बहा सको तो बहा दो | "
आवाज का प्रवाह सहसा रुक गया और साथ ही मेरी आँखों का प्रवाह भी | मैंने चारों और निस्तब्धता को देखा | अन्यमनस्क भाव से समाधि को बिना प्रणाम किये ही वापिस लौटने लगा | राह में नाले ने पूछा - ' क्यों , सुनली न कहानी ? कैसी लगी ? मैं चुपचाप चला आ रहा था | एक जगह घाटी ने पूछा - ' क्या हो गया ? बोलते ही नहीं ! ऐसी लड़ाई क्या तुमने कहीं पढ़ी या सुनी है ? पर मैं क्या उत्तर देता ? चुपचाप बढ़ता ही गया | जिन पत्थरों से मैंने प्रश्न पूछे थे , उनके पास आया तो वे भी अट्ठहास कर उठे - ' ओ महाराणा की संतान ! सुन लिया न तुमने ? और सुनना चाहते हो तो सुनों , हम सुनाते है - उस दिन .... | ' मैंने झटपट कान बंद कर लिए और दौड़ पड़ा वहां से | पीछे से पत्थरों का भयनक अट्ठहास सुनाई दे रहा था | उस दिन मैंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब कभी इस घाटी में आऊंगा तो साथ ऐसे पत्थर लाऊंगा , जो इन्हें उससे भी अधिक लोमहर्षक कोई कहानी सुनायेंगे और वे पत्थर भी , जो मेरे प्रशंसक नहीं , साक्षी बन कर साथ रहे |
समाप्त |

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