होनहार के खेल -3

भाग-1, 2 से आगे .........
जब सभी मेजबान चले गए , तब चंद मेहमान शेष रह गए और वे भी अंत में तंग आकर ताला लगाकर चले गए | सुनसान मेरा साथी बना | उसने भी एक दिन विदा ली और दुदा और तिलोकसीं आये | सिंहासन हाथ लगाते ही मैंने चेतावनी दी - ' सावधान ! मेरे विवाह का वायदा करो, तो इस सिंहासन पर बैठ सकते हो |' उन्होंने कहा -स्वीकार है | दर्पण ने एक दिन दूदा को कहा - अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो उसे पूरी करने के तुम्हारे दिन ढल रहे है - बालों में एक सफ़ेद बाल आ गया है | ' मेरे मालिक मेरी शादी की तैयारियों में जुट गए | कांगडे वालों की घोड़ियाँ ले आये | लाहोर के पास से बाहेली गूजर की भैंसे और सोने की मथानी ले आये | बादशाह के घोड़ों की सौगात ले आये | आखिर फिरोजशाह तुगलक ने लग्न-पत्री स्वीकार की | फ़ौज बाहर पड़ी रही ,आखिर धेर्य ने मेरी मदद की और संवत १४२८ की विजया दशमी का महूर्त निकल आया |
उस दिन तेल चढ़ने का मुहूर्त था | अग्नि प्रज्वलित की गई और रनिवास फिर उसी आग में चला गया | दुसरे दिन सुबह एकादशी को मैं चंवरी चढ़ने वाला था | तैयारियां पूरी हो चुकी थी | बारातियों ने केसरिया वस्त्र धारण किये | सब ने कसुम्बा पिया , गले लगे और मेरी एतिहासिक बारात के अनमोल बाराती नीचे उत्तर पड़े | शहनाईयां चीख पड़ी , और मारू सिसकने लगे | जीवन के सागर में ज्वार आ रहा था - लहरें -यौवन की लहरें , उमंग , आनन्द और जीवन की लहरें मौज में आई हुई थी | धरती से उछलकर कभी आकाश के गले में बान्हे डाल रही थी और कभी आकाश से उतर कर धरती को चूम रही थी | घोड़ों की टापों से उड़ रही झीनी-झीनी खेह में पवन गालों में हाथ दिए प्रेम के मधुर-मधुर गीत गा रहा था | मुझ पर चंवर ढुलाई गई , मेरी पीठी की गई , वस्त्रों से सुसज्जित किया गया | उस दिन मैं फूला नहीं समां रहा था | होनहार तो ईर्ष्या से जलभुन गया | आखिर चंवरी चढ़ी , भांवरे भी खाई | थोड़ी देर के बाद देखा -धूमधाम समाप्त हो गई , बाराती और बारात भी गई , मांढ भी सुनी पड़ी है | न उत्सव करने वाले रहे , न उत्सव देखने वाले रहे | परवाने जल चुके थे , शमाएं बुझ चुकी थी, मनुहारें बंद हो गयी और महफ़िल उठ गई | सुहागरात की सतरंगी शय्या पर दुल्हन भी नहीं , केवल उसका खींचतान से फटा हुआ दामन पड़ा था | मुझे तो मालुम ही नहीं हुआ , कि मैंने मौत से शादी की थी या जिन्दगी से | उस फटे हुए दामन से तो मेरा कफ़न भी नहीं बन सकता था | भयंकर सुनसान को देखकर मुझे होनहार के खेल का सही अर्थ मालुम हुआ और मैंने चीख उठा - ' निर्दयी होनहार ! तुमने यह क्या कर डाला ?'
क्रमश:...........

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Comments :

1
ताऊ रामपुरिया said...
on 

बहुत ही उत्कृष्ट श्रंखला.

रामराम.

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