अब भी क्षत्रिय तुम उठते नहीं फिर आखिर उठके करोगे क्या ?
वीरों का जीना जीते नहीं बकरों की मौत मरोगे क्या ?
जौहर की ज्वाला धधकेगी पानी में डूब मरोगे क्या |
युग पलटा है प्रणाली पलटी रोना पलटा हुंकारों में
पानी जो गया पातालों में अब पलटेगा तलवारों में
पलटे दिन की रणभेरी है उसको अनसुनी करोगे क्या ?
युग युग से हुंके उठती है चितौड़ दुर्ग दीवारों से
हिन्दू क्या रोते पृथ्वी रोती आंसू पड़ते तारों से
वे केसरिया बन जूझे थे तुम पीठ दिखा भागोगे क्या ?
शक्ति शौर्य जो पास नहीं तो विजय नहीं जयकारों में
निर्बल की नैया डगमग करती दोष कहाँ पतवारों में
अब बाहूबल संचित करने भी धीरे कदम रखोगे क्या ?
शिवी ने शरणागत खग को बचाने मांस निज काट दे दिया था |
गौरक्षा हित तेरा पूर्वज स्वयं समर्पित हो गया था
अब मरने की बेला आएगी आँखे बंद करोगे क्या ?
धर्म भ्रष्ट कर्तव्यहीन बन जग में भी जिवोगे क्या ?
अपने हाथों से घर जलवा कर रस्ते पर लौटोगे क्या ?
रे प्राण गए तो देह नाश से कभी बचा पावोगे क्या ?
स्व.श्री तन सिंह ,बाड़मेर : नवम्बर १९४७
अब भी क्षत्रिय तुम उठते नहीं
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स्व.श्री तन सिंह जी कलम से
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ek sahi lalkaar .........baehad khubsoorat abhiwykti ........badhaaee
बहुत प्रेरणास्पद.. रचना..
भर्ष्ट व्यवस्था को बदलने के लिये ऐसी ही ललकार की जरूरत होती है।