होनहार के खेल -1

कभी इस मार्ग पर घोड़े दौड़ते थे , कभी ऊंट दौड़ते थे , पर आज मोटरे दौड़ रही है | कभी इस मार्ग पर फौजे आती थी , कभी नगारे बजते थे , और आज सिर्फ यात्री आ रहे है और यात्री जा रहे है | कभी इस मार्ग पर जिन्दगी के कारवां गुजरते थे , कभी मौत के हरकारे दौड़ते थे पर आज न तो मौत दौड़ रही है न जिन्दगी , केवल सुनसान बैठा हुआ है | अपनी ठुड्डी पर मुट्ठी का अग्र भाग दिए सोच रहा है - ' होनहार ने क्या कर डाला !'
खुरासान का बादशाह फरिद्शाह दो बार करारी पराजय खा चूका था , इसीलिए महाराजा गज ने गजनी नगर और उसका किला बसाया | कुचला हुआ सांप क्रोधित होकर प्रत्याक्रमण कर सकता है और हुआ भी वही | इस बार रूम का ममरेज शाह भी साथ था | दो बार हार कर गया , किन्तु तीसरी बार शालिवाहन को अपने पिता की रणभूमि ही छोड़कर पंजाब आना पड़ा | आज गाथाओं से सरोबार यह बालू रेत के टीबे और व्यथाओं को समेटे यह पथरीले मगरे अफगानिस्तान की हिम-मंडित और फलों से लदी हुई पहाड़ियों और घाटियों को याद कर सोचते है - ' होनहार ने क्या कर डाला !'
पंजाब में शालिवाहन ने स्यालकोट बसाया | गजनी तो वापस भी आई , परन्तु अंत में स्यालकोट को भी ले गयी | अपने दादा के वतन को छोड़कर महाराजा भाटी ने भटनेर का किला बसाया | मेरे आस पास खड़े ये सूखे खेजडे , फोग की पसरी हुई झाड़ियाँ और झुलसे हुए आकडे पंजाब के हरे- भरे और लहलहाते मैदानों की याद में वेदना के सागर सुखा रहे है और इधर मेरी स्मृति में भी कांटे चुभ रहे है - ' होनहार ने क्या कर डाला !'
लेकिन होनहार ने क्या किया है ? कुछ नहीं ! उसने तो सिर्फ नाम बदलें है | भटनेर वहीँ है , नाम बदल गया है - हनुमानगढ़ | भाटी के प्रपोत्र महाराजा केहर ने सिंध में केहरगढ़ बसाया था , आज उस सिंध का सिर्फ नाम बदल गया है - पकिस्तान | होनहार तो सिर्फ नाम बदला करता है | कभी प्रभात को संध्या कर देता है और कभी संध्या को प्रभात | कभी किसी को सम्राट कह देता है , फिर पलट कर उसी को फकीर कह देता है | होनहार वही है , उसकी कलम भी वही है , सिर्फ कागज बदल रहे है , रंग बदल रहे है , नाम बदल रहे है , पात्र और स्थान बदल रहे है पर उनके साथ जमाने भी बदल रहे है |
केहर के पुत्र महाराजा तणुराज का बनाया हुआ तनोटगढ़ खडाल में अभी तक बना हुआ है , पर शासकों के नाम बदल गए | तणु का पुत्र विजयराज चुंडाला था , जिसने भटिंडा के वरिहाहों के दांत खट्टे कर दिए पर होनहार पलटा और उन्ही वरिहाहों ने घात कर विजयराज को मार डाला और उसके पुत्र देवराज पर आफत के पहाड़ चुन दिए | होनहार ने नाम और ज़माने पलट दिए और इतिहासकार सोचता है - ' होनहार ने क्या कर डाला ?'
होनहार से जब पहली बार मैंने बदला लेने की ठानी तब सर्वप्रथम देवराज से उसकी मुटभेड हुई | होनहार ने उसके पिता विजयराज को वरिहाहों से कपटपूर्वक मरवा डाला , तो इसने वरिहाहों का समूल नाश का होनहार के मुंह पर पहला थप्पड़ मारा | होनहार ने उससे तनोट का किला छुड़ाया , तो इसने देरावर बसाया , बदले में भटनेर और भटिंडा हाथ किया और ब्याज में लुद्र्वा को भी छिनकर होनहार के मुंह पर दूसरा थप्पड़ मारा | होनहार ने इसे अपने पैत्रिक राज्य से भ्रष्ट कर महाराजा से दर-दर का भिखारी बना दिया , पर इसने पुरुषार्थ और बल-विक्रम से पुन: महाराजा ही नहीं , महारावल बनकर होनहार के मुंह पट तीसरा थप्पड़ कस दिया | पुरोहित लांप के पुत्र रतना को इसके साथ भोजन करने के कारण जाति बहिष्कृत किया गया , किन्तु सन्यासी बने सिंहस्थली के इसी पुरोहित को सोरठ से बुलाकर इसने इसकी नई जाति रत्नू चारण बनाकर होनहार के मुंह पर चोथा थप्पड़ मार दिया | मेरे हाथों होनहार ने इतनी चुभती हुई और बेशुमार थप्पड खाई कि उसका मुंह पीड़ा और शर्म से लाल हो गया था | मेरी तो फिर भी शिकायतें रही पर देवराज ने कभी शिकायत नहीं की , कि होनहार ने क्या कर डाला ?
क्रमश:............
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Comments :

2 comments to “होनहार के खेल -1”
ताऊ रामपुरिया said...
on 

बहुत लाजवाब और नायाब रचानाएं छाप रहे है आप.

रामराम.

pagdandi said...
on 

is mala me piroye ak ak shabd bhut kimti hai....bhut accha lekhan hai hokam...

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