चेतक की समाधि से -4

भाग-१ , भाग-२,भाग-३ से आगे...........
" वातावरण की एकरूपता में इतना समय हो गया कि मुझ अभागे को ध्यान ही नहीं रहा, कि वे तो मुगलों से घिर गए | इतने में मैंने झाला सरदार को देखा | घेरे को तोड़ कर वे समीप आ गए और उन्होंने उनका मुकुट अपने सिर पर धारण कर लिया | मैंने सोचा -झाला सरदार मेवाड़ के महाराणा बनना चाहते है | विपत्तिकाल में उपकारों को भूलकर पीठ में छुरा भौंकने वाली उस निर्लज्ज कृध्नता को देखकर मैं क्रोध और ग्लानी से हिनहिनाया | मैं कितना भोला था - पशु जो ठहरा ! समझ न सका ,कि वह तो भाई का खून था , जो वक्त पर रंगत लाया करता है | उनके बीच वार्तालाप हुआ वह मुझे याद नहीं रहा ,किन्तु उस दिन मेरे कान अपने अस्तित्व का फल पाकर धन्य हो गए | मुझे झाला सरदार का अंतिम और महत्वपूर्ण वाक्य ही याद है और इस स्मरण शक्ति पर मुझे नाज है |
" मेरी नहीं , आज मेवाड़ को महाराणा प्रताप की आवश्यकता है | "

मेरे कानों ने भी दुहराया - " आज मेवाड़ को महाराणा प्रताप की आवश्यकता है |"
मेरे मस्तिष्क ने भी दुहराया - " आज मेवाड़ को महाराणा प्रताप की आवश्यकता है |"
मेरा रोम-रोम कह उठा - "आज मेवाड़ को महाराणा प्रताप की आवश्यकता है |"

" और मैं पवन की गति और वेग से भागने लगा | अन्तरिक्ष के किसी टूटे हुए नक्षत्र की तरह सा जाने लगा | उन्होंने लगाम खिंची , रानें दबा-दबा कर लौटने का इशारा किया | शायद उन्होंने सोचा होगा , कि मैं पशु हूँ , इसलिए समझ नहीं रहा हूँ, कि रण से भागने वाले क्षत्रिय का जीवन धिक्कार योग्य है | मुझे भी अपनी माँ को दिया हुआ वचन याद आया | आमेर के मान सिंह के शिकार की सूचना पर क्षत्रिय धर्म निभाने की प्रतिज्ञा याद आई , भुंडण का सूअर के प्रति किया गया आव्हान याद आया और मेरा निश्चय याद आया कि मैं रण से कभी न भागूँगा |
" पथिक ! तुम तो जानते हो मेरी व्यथा को ? जानते हो , मैं क्यों भागा ? जिसे तुम समाज चरित्र कहा करते हो , मैंने भी उस दिन उसी भाषा में सोचा था | मैं कायर कहलाऊं , इसकी मुझे चिंता नहीं , रण से भागा हुआ कुल को लजाने वाला कहलाऊं , इसकी भी मुझे चिंता नहीं | मुझे इस बात की तनिक भी चिंता नहीं थी , कि मैं अपनी की हुई प्रतिज्ञा के विरुद्ध आचरण कर रहा हूँ क्योंकि उस समय इन समस्त चिंताओं से परे मुझे मेरा कर्तव्य याद दिला रहा था , मेरी नहीं , " आज मेवाड़ को महाराणा की आवश्यकता है |"
" जानते हो उस दिन मैं न भागता तो क्या होता ? गगन के सूर्य की तत्परता व्यर्थ जाती | रणचंडी का नृत्य व्यर्थ जाता | मेवाड़ के स्वतंत्रता प्रेमी की महत्वकांक्षा व्यर्थ जाती और सर्वोपरि झाला मान सिंह का सर्वस्व दान व्यर्थ जाता |मेरी एक टांग कट गई थी | मेरे शरीर से रुधिर की इतनी बड़ी धाराएं बह रही थी कि , मेरा पसीना भी लाल दिखाई दे रहा था | फिर भी मैं बढ़ा चला जा रहा था | सहसा पीछे से घोड़ों की टापें सुनाई दी | सामने नाला बह रहा था | क्षण भर विचार आया कहीं ऐसा न हो , कि मेरी कायरता का अभिनय भी व्यर्थ जाय | बल लगाया और कूद पड़ा | नाला तो क्या , उस समय समुद्र होता तो भी मैं हनुमान की भांति उसे लांघ लेता | परन्तु मुझे क्या मालूम था , कि मेरे जीवन दीपक की बुझने से पहले यह अंतिम भभक थी | मन और आत्मा आगे बढ़ना चाहते थे , पर शरीर ने उनका साथ छोड़ दिया और जीवन में पहली बार अशक्त , निराश और असहाय होकर गिर पड़ा |....
क्रमश :.........


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Comments :

2 comments to “चेतक की समाधि से -4”
Udan Tashtari said...
on 

बढ़िया श्रृंखला चला रहे हैं इन प्रस्तुतियों की..जारी रहिये.

ताऊ रामपुरिया said...
on 

लाजवाब.

रामराम.

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