जलवे अनेक रण के दिखा कर चले गए |
नापा न जा सके वो कर्जा कर चले गए ||
जाते है हम समाधी पै,पूछे कि क्या किया रे ,पूछें ....
देना था तेरा काम तो हमको है क्या दिया रे ?
चुपके से काफिलों को लाड कर चल दिए रे ||
तेरे लिए व्याकुल हुई पुकारती हुई जहाँ रे -पुकारती ....
ओ कौम के सिपाहियों सोते हो क्यों यहाँ रे ?
कुछ हमको समझाए बिना क्यों चले गए ||
मेरी परम्पराओं की कीमत है जा रही रे , कीमत ...
अब हमको सरफरोशी की इच्छाएँ खा रही रे
माथों के भाव को महंगा कर चले गए ||
सोचो न बेवफा ये थे ,जीना ये जी गए रे , जीना ...
हम पर लुटाके खुशियाँ गम को ये पी गए रे ,
खुद को मिटाके हमको उठाकर चले गए ||
इतना तो हम कहेंगे ही तक़दीर बदल गए रे , तक़दीर ...
उसके भरोसे हमको दे, तुम भी भुला गए रे ,
देखे बिना ये हाथ छिपके क्या चले गए ||;;
जलवे अनेक रण के
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स्व.श्री तन सिंह जी कलम से
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बहुत ओजस्वी रचना.
रामराम.