भाग-1, 2, 3, 4 का शेष .............
उस दिन के बाद निश्चिन्त होकर ढाई सौ वर्ष तक मैंने खूब भोग भोगे | अवर्णीनीय एश्वर्य का उपभोग किया | रंगीन और हसीन महफ़िलों में डूब गया , पर मुझे क्या मालूम था , कि भोग और एश्वर्य के उन मादक प्यालों में होनहार ने ऐसा जहर घोल दिया , कि जिससे क्षण-क्षण मृत्यु समीप आने लगी | अज मैं स्पष्टतया देख रहा हूँ - मेरे थिरकते यौवन पर मनहूस बुढ़ापा छा गया | मेरे क्रोध के दांत टूट गए , मेरी बहादुरी के बाल सफ़ेद हो गए , मेरी उमंग में झुर्रियां पद गयी और मेरे पुरुषार्थ के घुटनों में संक्रामक दर्द शुरू हो गया | मेरे बारह -बारह वर्ष तक के घेरे लगाये गए, पर जब मेरा जीवित मौसर (मृत्युभोज) कर दिया गया ,उस दिन बारह दिन क्या बारह घंटे ही किसी ने शोक नहीं किया | मेरी अर्थी बनाकर मुझे शमशान भी नहीं पहुँचाया गया और मेरे विजेताओं ने मेरी ही छाती पर दिवालियाँ मना ली | अब लोग मुझे देखने आते है - मैं भारत सरकार के दर्शनीय स्मारकों में हूँ , होनहार ने जीते जी मेरा स्मारक बना दिया | अब मैं जी क्या रहा हूँ , जीने की परिभाषा बदल रहा हूँ | दिल में इतने घाव और स्मृति में इतने फफोले पड़ गए है कि जीवन की परिभाषा समझा भी नहीं सकता |
दर्शक ! मेरी जिन्दगी कितनी रंगीन और खुबसूरत थी , पर मेरी मौत कितनी कमीनी और मनहूस हो गई ? काश ! मैं यह समझ पता , कि होनहार ने क्या डाला ?
होनहार ने मेरे साथ बहुत दगा किया है | उसने मेरी पीठ में छुरी भोंक दी है | मेरी जर्जरावस्था में अब मेरे तीन शत्रु हो गए है - होनहार , जरा और मृत्यु | पर मैं मांचे (खाट) की मौत कैसे मरुँ ? क्या चाचकदेव की संतान ने परिवार नियोजन करा लिया है ? क्या अब दिल्ली और मुल्तान में कोई बादशाह नहीं रहा ? क्या अब सामन्तो की कीमत बीस -बीस तीस-तीस हजार रूपये हो गई है ? क्या अब देवराज, चाचक देव , मूलराज या तिलोकसी कोई भी लौटकर नहीं आएगा ? कोई हर्ज नहीं , न आये ! क्या कह रहे हो - तुम मेरी सहायता करोगे ? हं हं ! तुम्हारे जीते जी मेरी कितनी बुरी हालत हो गई है ; तुम्हारे जीते जी लोग तुम्हारी धरती ले गए , इतिहास और संस्कृति ले गए और तुसे उफ़ कहते नहीं बन पड़ा | तुम्हारे शत्रुओं ने तुम्हारी छाती पर बैठकर तुम्हारी कुल परम्परा का अपमान किया | और तो और , तुम उस शत्रु के टुकड़ों पर दम हिलाकर तलुवे चाटने लगे | काश ! मुझे फुसलाने के प्रयासों से पहले मेरी जिन्दगी की रंगीनियों को देखते ; मेरी जवानी के इठलाते हुए दिन देखते | मेरी रक्षा और इज्जत के उन हरकारों को देखते | अब तो कारवां गुजर गया , उसकी खेह भी नहीं रही , कि जिसे तुम्हे बता कर प्रमाण ही दे देता कि मैं तुम जैसा नपुंसक नहीं , उस होनहार वंश परम्परा की प्रतीक्षा कर रहा हूँ , जो होनहार के छक्के छुड़ा दे | वह देखो ! मैं उस कारवां की प्रतीक्षा कर रहा हूँ , जो दूर झुरमुट के पीछे आता हुआ दिखाई दे रहा है | झीनी झीनी खेह में , गिरती उठती परछाईयों में , कभी पहाड़ों और कभी बादलों की ओट में , कष्टों से खेलता , जंगलों की ख़ाक छानता हुआ बढ़ा आ रहा है | वर्षों से मैं उसके स्वागत के लिए कुमकुम का थाल लिए खड़ा हूँ | न जाने कब आएगा ? न उसकी गति तीव्र है ; न धीमी | न उसमे उद्वेग का उतावलापन है न निराशा और मोह के कारण विश्राम की कामना | उसी की एक मात्र आशा पर मैं होनहार से लड़ने की ठान रहा हूँ | होनहार भी खेल खेल रहा है , पर अब उसके पास रंग की आखिरी प्याली और काल की चरमराती तुलिका है | इतिहास के एक दो आखिरी पृष्ट खाली रह गए है , जिन पर मेरी और होनहार की आखिरी मुलाकात होगी ; हम परस्पर प्यार से लड़ मरेंगे और लड़ कर प्यार करेंगे | हमारा आखिरी फैसला उसी दिन होगा - कौन अमर हो जाय और कौन सदा के लिए मर जाए ! बड़ा खार खाए बैठा हूँ | इतना लोमहर्षक संघर्ष करूँगा , पापों का इतना कंपकंपाने वाला प्रायश्चित करूँगा , अपनी अकर्मण्यता की ब्याज सहित इतनी कीमत चुकाऊंगा कि होनहार का निर्माता भी कहेगा - ' यह तुमने क्या डाला , हमें भी तो याद करते |'
समाप्त |
ज्ञान दर्पण : पन्ना धाय |
होनहार के खेल - 5
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बहुत बढ़िया रहा!
बहुत बेहतरीन.
रामराम.
बहुत बेहतरीन.
ACHI BAT HE SA !!!!!!!!!!
SHKEHAR KUMAWAT
http://kavyawani.blogspot.com/