आंसू इक उमड़ा उमड़ने पे सोचा |
बहूँ न बहूँ क्या करूँ ये ही सोचा ||
बहा तो कहेंगे आँख बह गई है
रुका तो लगेगा जहाँ रुक गई है
दुविधा है कैसी बहुत बाद सोचा ||
दिया जो जला तो पतंगा भी आया
जलूं किन्तु उसका न मरना सुहाया
जला ही न होता तो ठीक होता ||
क़दमों के नीचे सांप दब गया है
उठालूं यहाँ घोंसला दब गया है
जहर खाना होगा किस्मत ने सोचा ||
घटायें जो बरसी नदियाँ बही थी
जहाँ से आई वहीँ जा रही थी
परदे यों उठेंगे कभी भी न सोचा ||
जल जलों ने हमको कहीं का न रक्खा
कांटो के बीच केवल अपनों ने परखा
मिटें तो मिटें पर कहाँ जाएँ सोचा ||
13 मार्च 1964
बङगङां बङगङां बङगङां -3
आंसू इक उमड़ा
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झंकार,
स्व.श्री तन सिंह जी कलम से
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आंसू इक उमड़ा उमड़ने पे सोचा |
बहूँ न बहूँ क्या करूँ ये ही सोचा ||
गजब की रचना है, बहुत आभार.
रामराम.