अरमान जलाता हूँ , पर दीप नहीं जलता |

अरमान जलाता हूँ , पर दीप नहीं जलता |
सौगन्ध दिलाता हूँ , पर मन्त्र नहीं चलता ||

क्या खाक बनाऊंगा परवाने सा जलके
उस राख का क्या बनना शोले ही नहीं दहके
बाधाएं मिटाता हूँ , तक़दीर नहीं टलता

बेबस हूँ आज खिलौना किस्मत के खेलों का
बेकार मुसाफिर हूँ दुनिया के मेलों का
नक़्शे जो बनाने है सांचा नहीं ढलता ||

ईमान नहीं बेचा कर्तव्य की राहों में
मै डूब चूका पूरा दुखियों की आहों में
खुद ही छला जाता , औरों को नहीं छलता ||

राहों को दिखाया है भीतर भी नहीं देखा
तम नष्ट किया भीतर नव ज्योति की नहीं रेखा
आंसू ही बहा करते , पर दर्द नहीं गलता ||

अब अंतर के तप की धुनी को रमाना है
जो बाहर दिखता है भीतर भी दिखाना है
निज को न बनाया तो , जग रंच नहीं बनता ||
27 फरवरी 1964


बङगङां बङगङां बङगङां
वो कौम न मिटने पायेगी

इससे जुड़ीं अन्य प्रविष्ठियां भी पढ़ें


Comments :

4 comments to “अरमान जलाता हूँ , पर दीप नहीं जलता |”
Randhir Singh Suman said...
on 

nice

Arun sathi said...
on 

अब अंतर के तप की धुनी को रमाना है
जो बाहर दिखता है भीतर भी दिखाना है
निज को न बनाया तो , जग रंच नहीं बनता ||
बहुत सुन्दर रचना।

ताऊ रामपुरिया said...
on 

बेहतरीन रचना.

रामराम.

निर्मला कपिला said...
on 

अब अंतर के तप की धुनी को रमाना है
जो बाहर दिखता है भीतर भी दिखाना है
निज को न बनाया तो , जग रंच नहीं बनता |
बहुत खूबसूरत । धन्यवाद्

Post a Comment

 

widget
चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
www.blogvani.com

Followers