भाग-१,भाग-२,भाग-३,भाग-४ से आगे ........
' महाराणा प्रताप पीछा करने वाले शत्रुओं से यहाँ मारे जायेंगे | मैं इस होनी को देखना नहीं चाहता था और मैंने अपनी दयनीय असहायावस्था में आँखे बंद कर ली | पर कानों को कैसे बंद करता ? उनसे मैंने सुना - " ओ लीला घोडा रा असवार ! थोडा थंभो तो सही | '
" आवाज कुछ जानी पहचानी सी लगी | आँखों से देखने का लोभ संवरण नहीं किया | शक्ति सिंह आते हुए दिखाई दिए | घोड़े पर चढ़े हुए , हाथ में रक्त रंजित तलवार |...
" हे इकलिंग ! शक्ति सिंह के हाथ की डायन क्या इतने राजपूतों के खून से तृप्त नहीं हुई , कि महाराणा का ; अपने सगे भाई का खून पीने के लिए लालायित है ?...
" मैंने सिर उठाकर देखा , कि महाराणा ने हथियार डाल दिए है | मैं तो निरा पशु ही ठहरा ; फिर भूल गया - शायद मेरे अभाव में महाराणा हिम्मत हार गए | मैंने भगवान् से अंतिम प्रार्थना की - भगवान् ! मुझे चाहे मोक्ष मत देना , अगली बार कोई नीच योनी देना , लेकिन मेरा अंतिम अरमान पूरा कर और मुझे बल दे |"
भगवान् ने मेरी प्रार्थना सुनी और मैं फिर बल लगाकर खड़ा हो गया और महाराणा के पास पहुँच गया | पर वे तो खड़े ही नहीं हुए , कहने लगे - शक्ति सिंह मैं मरना चाहता था , किन्तु मौत ने मुझे ठुकरा दिया | मैं मेवाड़ को परतंत्रता के बंधनों से मुक्त करना चाहता था पर भाग्य ने मुझे ठुकरा दिया | मैं सुखी होना चाहता था , परन्तु आज मेरे सुख दुःख का साथी चेतक भी अंतिम विदा लेकर मुझे ठुकरा रहा है | तुम्ही बताओ इतनी ठोकरों के बाद कौन जीना पसंद करता है ? फिर किसी मुग़ल की अपेक्षा अपने सहोदर भाई के हाथ मरने पर इस हार को भी अमृत का घूंट मानकर पी लूँगा | आओ करो अरमान पूरे | दो मुंड तो तुम बगल में लिए आ रहे हो और अब मेरा यह तीसरा मुंड भी ले लो |"
' शक्ति सिंह बोले - नहीं दाता ! आप मुझे गलत समझ रहे है | हम बहुत दिनों से मिले है | आज तीसरा मुंड लेने नहीं , देने आया हूँ | आपके प्राणों के भूखे दो मुंड तो यह रहे और तीसरा यह रहा आपके अनुज की तुच्छ भेंट !' पर भेंट स्वीकार नहीं हुई | दोनों की वाणी बंद हो गयी थी और आँखों में और अंत:करण में ज्वार उमड़ रहे थे , एक अकथनीय आदान प्रदान हो रहा था | दृश्य ऐसा था , जिसका वर्णन न मैं कर सकता हूँ और न तुम सुन सकते हो | त्रेता के भरत- मिलाप की कलियुग में पुनरावृति हो रही थी | दोनों गले लग रहे थे, बिछुड़े हुए बंधुओं का दुर्भाग्य और सौभाग्य की संधि-रेखा पर पुनर्मिलन हो रहा था |
' एक कह रहा था - ' मेरे जीवन की यह कितनी अविकल्प कालिमा है , कि मैं आप जैसे देशभक्त भाई के विरुद्ध देश के शत्रु से जा मिला | देश तो क्या पिता का भी नहीं रहा | चाहे माफ़ करें , ऐसे कोटि -कोटि आत्मसमर्पण से भी मेरे जघन्य पाप का प्रायश्चित नहीं होगा | आपकी शरण में हूँ राखलो , चाकर हूँ | दूसरा कह रहा था - नहीं शक्ति ! गलती तो मेरी थी | मेरी सहनशीलता मुझे दगा दे गई जो - यह शिकार किसके प्रहार से हुआ ? केवल इस छोटे से प्रश्न के समाधान में मैंने अपने भाई को देश निकला दे दिया | समाज चरित्र की जीवन पर्यंत साधना भी मुझसे सदैव व्यंग्य करती रहेगी , कि तुम मेरे ही कारण मेवाड के शत्रु से मिल गए |
क्रमश :.......
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बढ़िया पठन...आभार!
श्रेष्ठतम श्रंखला,
रामराम.