बैसाख का महिना निराश और हैरान होकर पसीना बहाता हुआ उतर रहा था और हमारी रेलगाड़ी अरावली की घाटियों में हांफती हुई चढ़ रही थी | रेलगाड़ी से भी तेज मेरा मन उस हल्दीघाटी को देखने की चाह में उड़ा जा रहा था | वह माटी कैसी होगी, जिस पर स्वातन्त्र्य -प्रेम और कर्तव्य पालन की पवित्र भावना लाल होकर नालों के रूप में बही थी ? वे पत्थर कैसे होंगे जिन पर मतवालों के घोड़ों की टापें अभी मिट ही नहीं सकी है ? वे पेड़ पौधे कैसे होंगे ,जो किसी लोमहर्षक युद्ध के पश्चात वीरों के रक्त की खाद से उगे है ? उस जंगल के पक्षी कैसे होंगे , जिन्हें जब किसी बीती हुई कहानी का कोई छुटा हुआ प्रसंग पूछूँगा , तब वे कहेंगे - यहाँ चेतक की टाप पड़ी थी , यहाँ मान सिंह का हाथी खड़ा था , यहाँ से झाला मान सिंह दौड़ कर आया था , यहाँ एक कम्ब्न्ध टकरा कर गिर गया था ,यहाँ एक गिद्ध साँझ तक बैठा रहा पर चोंच से मांस नोचने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी | इसी प्रकार अनेक कल्पनाओं में मैं डूबता उतरता रहा , रेलगाड़ी भी "हल्दीघाटी - हल्दीघाटी -हल्दीघाटी " रटती हुई नाथद्वारा स्टेशन पर ठहर गयी |
अब हमारी बस यात्रियों की चहचाहट और कहकहों को लिए धरती की काले रंग की पतली-सी मांग,सड़क , पर सर-सराहट के साथ फिसल रही थी | अचानक किसी पदयात्री अथवा पशु को देखकर थोड़ी सी चिल्ल-पौं मचाकर फिर घरघराती हुई दौड़ी चली जा रही थी | नाथद्वारा छोड़कर आते ही तो रास्ते की रंगत बदल गई , और यह लो ११ मील समाप्त होते ही खमनौर गांव भी आ गया |
यह वही खमनौर गांव है जहाँ से हल्दीघाटी शुरू होती है | यह वही गांव है , जिसने अनेक बार शाही फौजों को सतर्कता के साथ आते जाते देखा है और कभी कभी उन्हें खदेड़ते हुए महाराणा के उत्साह से उछलते हुए सैनिको को देख है | वही गांव है , जो मेवाड़ के गौरवशाली और संघर्षपूर्ण इतिहास का सजग साक्षी रहा है | किन्तु भूतकाल का यह अमर साक्षी वर्तमान में अटूट रूप से मौन है | किंकर्तव्य- विमूढ़ से खड़े इस छोटे से गांव को छोड़कर हमारी बस संकड़ी घाटी में उतरती हुई शाही बाग़ में आकर ठहर गई |
मैंने उतर कर देखा -चारों और लहलहाते छोटे छोटे खेत , जिनके बीच सजग प्रहरी के रूप में खड़े हुए आम, जामुन और महुए के पेड़ -लग रहा था , जैसे खेत से कह रहे हों - " इस माटी ने उपजाऊ बनकर अबतक केवल हमें ही पैदा किया है |" कहीं कहीं पानी की पतली धार में झरनों का पसीना बह रहा था | लग रहा था , जैसे कह रहा हो " इंसान का पसीना क्या नहीं कर सकता ?"
दुसरे दिन प्रात:काल ही मैं हल्दीघाटी देखने निकल पड़ा | शाही बाग़ की समाप्ति के बाद ही हल्दीघाटी शुरू हो जाती है | चारों और किसी अनिर्वचनीय सुनसान का पहरा लग रहा था | पत्थर भौचंक्के होकर मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे थे | मैंने अपना परिचय दिया - मैं एक क्षत्रिय हूँ , महाराणा प्रताप का वंशज हूँ , चंद्रसेन और दुर्गादास की संतान हूँ , हठी हम्मीर का खून हूँ , वीर पुरुषों के घर की शोभा हूँ , कौम की आशा हूँ | वे पत्थर बाधा देकर बोलने ही वाले थे ,कि सुनसान ने अपने हाथ उनके मुंह पर दे दिए | मैंने महाराणा प्रताप की कहानी पूछी ; हल्दीघाटी का युद्ध वर्णन पूछा ; मेवाड़ी और शाही सेना की मुटभेड का हाल पूछा , पर उत्तर देने वाला कोई नहीं था | हवा जरुर चल रही थी और उसी के कारण कोई कोई कीकर का पेड़ किसी अगम्य भाषा में सांय-सांय कर लेता था |
मेरे प्रश्न चलते रहे और जिज्ञासा कदम बढाती रही | मेरे विचार चलते रहे और अतीत मुड कर समीप आता रहा | मेरे कदम चलते रहे , घाटी चलती रही , पेड़-पौधे चलते रहे , छोटे-मोटे नाले चलते रहे और यकायक क्षितिज से उचक कर किसी मंदिर का शिखर ऊँचा आता गया |
क्रमश:...................
ज्ञान दर्पण : वह राम ही था ;
मेरी शेखावाटी: गीत संगीत की बाते:
जौहर वीरांगनाओं को भावभीनी श्रद्धाजंलि
चेतक की समाधि से-1
Labels:
Honhar ke khel,
होनहार के खेल
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
यह आपने बहुत बढ़िया श्रृंखला शुरु की है...आनन्द आ गया. आभार एवं साधुवाद. आगे इन्तजार रहेगा.
बहुत रोचकता और ज्ञान से भरपूर.
रामराम.
सच मे तीर्थ राज चितौड देखने को मेरी आन्खे है प्यासी .