ओ उजड़ी हुई मानवता

ओ उजड़ी हुई मानवता , तेरी यह कहानी है |
तेरी यह कहानी है , तेरी यह कहानी है ||
जब सृष्टि के प्रथम प्रहर में सत्य प्रतिष्ठा आई |
सत्य प्रतिष्ठा आई ||

उसे सुज्ज्वल करने की प्रह्लाद ने आशीष पाई |
हिरन्यकश्यप से आज कई है बुड्ढी हुई जवानी है ||
तेरी यह कहानी है ||

फिर सृष्टि के द्वितीय प्रहर में, राम राज्य था आया |
राम राज्य था आया ||

किन्तु बता तू उसका हमने कितना मूल्य चुकाया |
काँटों में है फूल पनपते जग को यह बात बतानी है ||
तेरी यह कहानी है ||

एक बार युग पलटा था, दानवता तब जागी |
दानवता तब जागी ||

संघर्ष मचा जब कुरुक्षेत्र में , प्राण बचाकर भागी |
मानवता प्रभु की थाती यह , गीता की अमृत वाणी है ||
तेरी यह कहानी है ||

कितने बचे अब तुझे मिटाने , कितने तुझे बचाने |
कितने तुझे बचाने ||

कितने है उजडे उपवन में , आये बाग़ लगाने |
मरू-भूमि में प्राण फूंक कर , उसको हरी बनानी है ||
तेरी यह कहानी है ||

स्व.श्री तन सिंह जी : ५ नवम्बर १९५१

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Comments :

2 comments to “ओ उजड़ी हुई मानवता”
Udan Tashtari said...
on 

अति सुन्दर प्रस्तुति. आभार पढ़वाने का.

तीसरी आंख said...
on 

बहुत बढ़िया रचना

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