क्रांति का बजरा

क्रांति का बजरा चला सवेरे, धूप ढली घिर आये अँधेरे
आज उठेंगे रे , भाग्य के सोये मौन चितेरे

हांक उठाई वज्र गिराए , बने बनाये सभी मिटाए
निर्दोषों के खून में रंग के , रंग बिरंगे लाल रंगाये
मानवता के मिट गए घेरे , ऐसे आये लाल सवेरे ||

समता के झांसे में इधर भी , भोग है उड़ता पंख लगाए
बेबस जन के ग्रास छिनकर , फिरते है आकर बढ़ाए
जगमग करते दीप्त घनेरे , दानवता के क्रूर बसेरे ||

यमराजों से जीवन की कोई , भिक्षा मांगे मुर्ख वही है
दिल नहीं बदले कुछ नहीं बदला , सत्ता बदली क्रांति नहीं है
दुविधाओं के बीच घिरे रे , आशाओं के फूल बिखेरे ||

नाम पुराना अर्थ नए दे , जीवन बदले क्रांति यही है
सहयोगी जीवन के सपने , मूर्त हुए रे स्वर्ग यही है
घोर अँधेरे में दीप भले रे , परमेश्वर की प्रीत पुकारे ||
22 अगस्त 1965

स्वतंत्रता समर के योद्धा : महाराज पृथ्वी सिंह कोटा |

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Comments :

2 comments to “क्रांति का बजरा”
दिलीप said...
on 

bahut hi joshili rachna...aabhar...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

ताऊ रामपुरिया said...
on 

बहुत उत्प्रेरक और उत्साह का संचार करती रचना. शुभकामनाए.

रामराम.

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