ओ जाग मेरे बलिदान !
तू दो दिन रहा कैसे चलता हुआ अब लौट मेरे मेहमान ||
तुमने मेरे बगीचे में फूल खिलाए
मेरी तक़दीर के तूने चाँद लगाए
मेरी पीढी के तूने घरोंदे बनाए - वे आज बने शमसान || ओ ...
तेरी उदासी पर रोते सभी
तेरे हंसने पे उठते जमाने कभी
तेरे ही भोजन पर अब तक सभी -- पलते रहे इन्सान || ओ...
जब जब मैंने जगाया वे जागते रहे
मेरी पीडा के शोले भड़कते रहे
जो साथ चले वे चलते रहे -- पर आज बने अनजान || ओ..
मैंने पत्थर छुए वे भी गाने लगे
मैंने इंगित किया मुर्दे उठने लगे
किस्मत के कैसे ये दाँव लगे - अब खाली पड़े खलिहान || ओ..
मेरी पीडा तो गलके अब पानी बनी
सफलता निराशा में गहरी ठनी
क्या कसूर मेरा तेरी भृकुटी तनी -- तू थोडा मुझे पहचान || ओ...
मन में हो ठोकर की ठोकर भी दे लो !
इससे भी ज्यादा कुछ करना हो करलो!
या तो अब लौटो या जीवन यह ले लो-- अब जीना हुआ अपमान || ओ..
स्व. श्री तन सिंह जी : ६ जून १९६०
ओ जाग मेरे बलिदान !
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बेहतरीन ।आभार ।