शमाएँ जल रही क्यों महफ़िल जहाँ नहीं हो
रहना है क्या चमन में खुशबू जहाँ नहीं हो ||
क्या जलजले यहाँ के पर्वत के पैर उखड़े
प्यारी है जिन्दगी जो इतिहास बन गई ||
लगता है मौत जाकर हंसते हुए रुलाकर
मस्ती यहाँ की पीकर बेहोश हो गई हो ||
मिटते भी है अनेको सैलाब आते देखो
बेकार बूंद है जो दरिया न बन बही हो ||
अपना ही घर जलाते दुनिया में नाम करते
शैतान ढूंढ़ते है इंसानियत कही हो ||
जिसके लिए जिए थे उसके लिए जियेंगे
सब मिलकर हम मरेंगे अरमान भी यही हो ||
स्व. श्री तन सिंह जी : १९ अप्रैल १९५८
शमाएँ जल रही क्यों
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स्व.श्री तन सिंह जी कलम से
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बढिया रचनाएं प्रेषित की हैं।बधाई।
achchhi lagi |