मन का पंछी दूर गगन में टोह लगाता आया रे |
इस जीवन में धीरे धीरे गीत किसी ने गया रे ||
नदियाँ देखि पर्वत ढूंढे रत्नाकर आए
लाख इशारे आने के पर मुझको न भाए
उड़ता आया बोलो किसने ये अनुराग जगाया रे ||
कैसी गांठे बाँधी थी जो खुलने न पाई
रंगत कैसी युग भी बीते घुलने न पाई
अंतर पट के मीत किसी ने गहरा रंग लगाया रे ||
तीनों लोको में ऐसी जगह मन में न कोई
सागर के पंछी को दिखता जहाज न कोई
जाएँ कहाँ रे घोर अँधेरी में एक सितारा पाया रे ||
लहर चली उमंग उठी नवरंग छाया
कुमकुम वर्णी ऊषा उतरी मन को लुभाया
स्वागत मेरी मंजिल का इक नया मुसाफिर आया रे ||
21 नवम्बर 1965
स्वतंत्रता समर के योद्धा : महाराज बलवंत सिंह ,गोठड़ा
शेखावाटी का अंग्रेज विरोधी आक्रोश
मन का पंछी दूर गगन में
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झंकार,
स्व.श्री तन सिंह जी कलम से
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बहुत आभार इस रचना के लिए.
बहुत सुंदर, आभार आपका.
रामराम.