दम लेने दो नफरत के

दम लेने दो नफरत के दौर मुझे
जीवन का इशारा और ही है |
मंजिल का आया हो छोर भले
सागर का किनारा और ही है ||

फुसला के मीठा जाम पिला,किसी ने मुझे बहकाया है
तबसे ना लौटी शांति कभी, विवेक नहीं पछताया है
बतला दे मुझको तक़दीर मेरी मुझसा आवारा और भी है |

मुश्किल से घर के आँगन में मैंने मेहमान बुलाये थे
मैं तो उन्हें पहचान सका ना ,वे मेरी कसौटी लाये थे
वैसे तो बैठा हूँ गिनलूं भले, जीवन का सहारा और ही है |

जबसे तुम आये दृष्टि बदली बदले पुराने अंदाज सभी
कितना हूँ बदला कोई कहे, कितना है बदलना और अभी
वे दिन भी बदले तुम ना बदले, बदलने वाले और ही है |

अरसे से मेरी परिचित ओ , सोई हुई आवाज उठो
जीवन के मांझी फिर से मेरी नैया की ले पतवार उठो
नज़रों में तेरे अंगार जले दुनियां में निशाने और भी है
5 मार्च 1967


विलुप्त प्राय: ग्रामीण खेल : झुरनी डंडा

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Comments :

2 comments to “दम लेने दो नफरत के”
सूबेदार said...
on 

बहुत अच्छा, लिखने क़ा मर्म समझने की आवस्यकता है

ब्लॉ.ललित शर्मा said...
on 

बहुत बढिया

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