कितने सैलाब उठे , बाँध भी न्बांधा न गया
दर्द के सागर है भरे आँख का दरिया न बहा
भर जाये न कहीं अरमानों का छाला
फूल के भरोसे बड़े प्यार से पाला
खून चूने लगा
घाव बहने लगा , नश्तर भी चलाया न लगाया |
न माँगा न चुराया तक़दीर ने भेजा
जो आया उसीको हंस के सहेजा
अपनों की बात बही
दुश्मन थे कई अंतर को छिपाया न गया |
जिनके इंगित पे नाव आई थी किनारे
अनजाने बने वे पहचाने हमारे
कितना उपहास हुआ
मनुहारें व्यर्थ गई , लंगर भी उठाया न गया ||
असमंजस की झोली में कब से पड़ा हूँ
मगर खुश हूँ तदबीर की छाती पे खड़ा हूँ
कोई माने या नहीं
अपना गम भूल गया , सपने को भुलाया न गया ||
स्व. श्री तन सिंह जी : १६ नवम्बर १९६३
वह राम ही था –२
कितने सैलाब उठे
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आभार स्व. तन सिंग जी की रचना का.
असमंजस की झोली में कब से पड़ा हूँ
मगर खुश हूँ तदबीर की छाती पे खड़ा हूँ
कोई माने या नहीं
अपना गम भूल गया , सपने को भुलाया न गया ||
अति उम्दा.
होली की घनी रामराम.