यहाँ ख़ुशी से खिलना जीवन का यह दस्तूर है
कहो कली क्या तुम्हे चटकना डाली पर मंजूर है
क्या संचय का राज खुलेगा , पोशीदा जो बागों में
जब धरती की कोख फलेगी , रंग लगेगा धागों में
हर बसंत पर लूटना तुम्हे जरुर है || कहो ........
क्या गिनती है तुमसे पहले , कितने फले युगों में है
उनकी गर्मी दौड़ रही क्या , शीतल पड़ी रगों में है
खून पुकारेगा तुम्हे वो मजबूर है || कहो .............
बाग़ पड़ा है उजड़ा है कब से , बंजारे सब चले गए
बस्ती नहीं बसाई तो फिर , लोग कहेंगे भले गए
इतिहास बनाने का अवसर भी भरपूर है || कहो .....
जो पनपो तो कली ! हमारी , लाख दुवाएं ले लेना
युग-युग की ओ जगमग आशा ,तन मन की बाती लेना
देव शीश चढ़ने लायक तेरा नूर है || कहो ..............
स्व. श्री तन सिंह जी : २३ जुलाई १९६३
यहाँ ख़ुशी से खिलना
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स्व.श्री तन सिंह जी कलम से
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बहुत ही प्रेरक भाव हैं, बधाई।
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सांसद/विधायक की बात की तनख्वाह लेते हैं?
अंधविश्वास से जूझे बिना नारीवाद कैसे सफल होगा ?