कांटे ही कांटे यहाँ दुनियां में ठोर कहाँ ?
सो के दम लूँ भी कहाँ ?
आया जब कोई गठरी लिए था
जान सका नहीं धन किसके लिए था
चल दूंगा करके बयां
छांह हो उसकी फिर बांह किसी की
प्रीत किसी की हो घात किसी की
अब बात बनी बेजुबाँ
मांगे बिना हूँ किसका नहीं नहीं मैं
लेना लिखा नहीं रोकड़ बही में
ब्याज को लेना है रे गुनाह
कोई मिलेगा सपनों का साथी
आँखों का आंसूं अंतर की बाती
शलभ वो मैं उसकी पनाह
21 नवम्बर 1967
क्यूँ यह दुनियां ?
कांटे ही कांटे यहाँ
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Jhankar,
झंकार,
स्व.श्री तन सिंह जी कलम से
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बहुत सुंदर.
रामराम
very nice
vidya