नाजोगे ?

दृश्यपटल पर मुझे अपना गांव दिखाई दे रहा था | मैं सिहर उठा , अब जाने क्या देखने को मिलेगा ? इतने में गांव बड़ा होता गया ; दृश्यपट की सीमाओं से उसकी सीमाएं बाहर निकलने लगी | एक छोटा सा घर बड़ा होता जा रहा था और कुछ ही क्षणों में वही घर सारे दृश्यपटल पर छा गया | मैंने पहचाना यह तो मेरा ही घर था | मैंने उसमे चार व्यक्ति देखे | उनकी शक्ल सूरत मुझसे कुछ मिलती जुलती सी थी | उनके बीच गरमागरम वार्तालाप हो रहा था उससे मैंने सार रूप से यही निष्कर्ष निकाला कि चारों मेरे प्रपोत्र है | मेरा घर तो कभी का अदालतों की डिक्री से कुर्क होकर नीलाम हो चुका था ; सिर्फ दो सौ पत्थर जो मेरे समय की सम्पत्ति थी , बचकर रह गई थी और आज उसी के बंटवारे के लिए झगड़ा हो रहा था |
मेरे सबसे बड़े प्रपोत्र का नाम ठाकुर हीराचंद है वह कलेक्टर के दफ्तर में चपरासी है | दिन भर दफ्तर में और घर में वही फराश का काम करता है | इस समय वह उसके बच्चो को सुलाकर घर आया है और मांग कर रहा कि वह सबसे बड़ा है और उनके पूर्वजों का रिवाज था कि बड़ा पाटवी होता है और उसे ही सबसे अधिक हिस्सा मिलता है , बाकी के भाइयों को सिर्फ गुजारे के लिए थोड़ी सी सम्पत्ति मिलती है | इसलिए इन दो सौ पत्थरों में से १०१ तो अकेले उसको मिलने चाहिए और बाकी ९९ में से शेष तीनों को ३३-३३ मिलने चाहिए | वह उन पर अपनी नौकरी का भी रौब झाड रहा था कि वे नहीं मानेंगे तो वह कलेक्टर साहब की धर्मपत्नी जी से कहलवाकर उनको जेल में डलवा देगा |
मेरे दुसरे प्रपोत्र का नाम श्री सिगरेटा सिंह था जो ग्वालियर की जियाजीराव काटन मिल्स में मजदूर था | वहीँ किसी मजदूर की तलाकी हुई एक महिला रधिया से उसने विवाह किया था और उसका राधादेवी नाम देकर गांव लाया जो दस रोज हुए झनकू बस ड्राइवर के साथ भाग गई थी | तार द्वारा खबर पहुँचने पर झनकू से बैर के १५० रु. मांगने आया था |

मेरे तीसरे प्रपोत्र का नाम नेकीराम था , जिसके पास बनारसी इक्का और लखनवी घोडा था | दिन भर दाने -पानी के जोर से नहीं बल्कि चाबुक के जोर से चला करता था | आज जब स्टेशन पर कोई तांगा नहीं था तो सरकारी आडिट पार्टी के तीन सदस्य आये थे जिनसे मुंह मांगे पैसे झडवा लाया था और वे पैसे थे कुल ६१ नए पैसे ; उसकी कमाई का सबसे सुनहरा दिन- हमेशा से दुगने और किसी दिन से तो तिगुने दाम मिले थे | इसलिए आज वह अपने अड़ियल घोड़े को सदा की भांति गालियाँ न देकर बापू बापू कहकर सहला रहा था |
मेरा चौथा प्रपोत्र था दीनू , जो अपने कुटुम्ब का हितैषी , संगठन का हिमायती और दूसरों के लिए त्याग करने का आदर्श रखा करता था , लेकिन उसकी मज़बूरी थी दिन भर भीख मांगना | आज नगर पालिका की और से सार्वजनिक तारतों के उदघाटन पर स्वास्थ्य मंत्री को दिए एक नागरिक सहभोज पर गया था , जहाँ उसे काफी पत्तलें ,झूठन ,डोनों में सब्जियां और अधजले सिगरेट के टुकड़े प्राप्त हुए थे | अपनी दिनभर की इस बड़ी भारी कमाई को लेकर वह ख़ुशी ख़ुशी आया था और समान बंटवारे के सिद्धांत का अनुसरण करते हुए अपने तीनों भाइयों को इसी संग्रह पर दावत देकर अपनी सहृदयता और उदारता का परिचय दे रहा था | उसकी इस शानदार दावत के रंग को दो सौ पत्थरों के झगडे ने भंग कर दिया |
क्रमश :



ज्ञान दर्पण : फैशन में धोती, कुरता और पगड़ी.
मेरी शेखावाटी: बिणजारी ऐ हंस हंस बोल बाता थारी रह ज्यासी:

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Comments :

2 comments to “नाजोगे ?”
ताऊ रामपुरिया said...
on 

जबरदस्त लेखन का कमाल है. बिल्कुल अदभुत, कितनी प्रवाह मे लिखा गया है यह सब? नमन है उन महान हस्ती को.

रामराम.

ब्लॉ.ललित शर्मा said...
on 

नमन है श्री तनसिंह जी को,
इनकी लेखनी के कायल हो गए है।
आभार

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