राह मिल गई साथ हो गए

राह मिल गई साथ हो गए और सुख का क्या करें ?
बांह ले ली हो किसी ने चांदनी क्या करें ?

वेदना के तीर पहुंचे भाव की पतवार ले
फिर स्वरों की गोते खा ही ले मझधार में
नवगीत लिखते है पुराने दर्द का हम क्या करें ?

जहर खा कर भी सदा अमृत पिलाना चाहते
प्रीत की टुक कर्जदारी भी निभाना चाहते
कैद होना चाहते है मुक्ति का हम क्या करें ?

सवेदना में कुछ मेहरबां भी दुखी होते यहाँ
इस नशे का जाम चुपके से चुरा पीतें यहाँ
खुद जले परवाना तो दीपक बिचारा क्या करे ?

रोशनी की खोज में भर जिन्दगी भटके रहे
बोल पतंगे अंत में मंजिल हमारी तुम रहे
मौत से सदा पटा अब जिन्दगी का क्या करें ?
17 जुलाई 1965
स्वतंत्रता समर के योद्धा : राव गोपाल सिंह खरवा
जिधर से भी गुजरता हूँ

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Comments :

2 comments to “राह मिल गई साथ हो गए”
Udan Tashtari said...
on 

आभार इस प्रस्तुति का...बहुत उम्दा रचना लगी.

हें प्रभु यह तेरापंथ said...
on 

sundar

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